Tuesday, December 5, 2017

कश्मीर – सामने आया नया मौका

C D Sahay, Dean, Centre for Neighbourhood Studies and Internal Security Studies, VIF

केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने एक बड़ा कदम उठाते हुए 23 अक्टूबर, 2017 को ऐलान किया कि भारत सरकार ने ‘जम्मू-कश्मीर राज्य में निर्वाचित प्रतिनिधियों, विभिन्न संगठनों तथा संबंधित व्यक्तियों से बातचीत करने के लिए’ खुफिया ब्यूरो के पूर्व निदेशक श्री दिनेश्वर शर्मा को ‘अपना प्रतिनिधि’ नियुक्त किया है। साथ ही श्री शर्मा ‘जम्मू-कश्मीर में समाज के विभिन्न वर्गों विशेषकर युवाओं की वैध आकांक्षाओं को समझने के लिए लगातार संवाद तथा संपर्क करेंगे और राज्य सरकार तथा केंद्र सरकार को उससे अवगत कराएंगे।’ (भारत सरकार, 2017)
इस निर्णय का चौतरफा स्वागत हुआ और इसे ‘बहुत गंभीर कदम’ तथा सही समय पर की गई पहल बताया गया (जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री, इंडियन एक्सप्रेस, 25 अक्टूबर)। मुख्यमंत्री ने कहा, “हम हमेशा से यही चाहते थे... यह राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत है।” कश्मीर मामलों पर गंभीरता से नजर रखने वाले अधिकतर पर्यवेक्षकों ने यही बात कही, लेकिन ज्यादातर राजनेताओं ने अपनी पार्टी लाइन पर चलते हुए संदेह जताया है। किसी ने कहा कि “सरकार ने मान लिया है कि बल प्रयोग का उसका तरीका नाकाम रहा” तो किसी ने कहा “अभी हमें घटनाक्रम पर नजर रखनी होगी” तथा किसी ने यहां तक कह दिया कि प्रक्रिया में पाकिस्तान को शामिल करना चाहिए।“ राजनीति से प्रेरित ऐसी दलीलों पर इस लेख में बातचीत करने की जरूरत भी नहीं है।
मई, 2017 में कश्मीर में तीन चरणों (पठानकोट आतंकी हमले के बाद; जून, 2016 में बुरहान वानी मुठभेड़ के बाद और उड़ी में सर्जिकल स्ट्राइक के बाद) में हुए घटनाक्रम की पड़ताल करने के बाद इस लेखक ने अपने लेख ‘जम्मू एंड कश्मीर -ऑन पाथ ऑफ नोवेयर’ में कहा था कि कश्मीर में हिंसा को खुफिया केंद्रित अभियानों द्वारा ‘लंबे समय तक गतिशील उपाय करते हुए’ नियंत्रण में लाना होगा; साथ ही यह भी कहा था कि “पूरी रणनीति के अंतिम हिस्से को ऐसे तैयार किया जाए कि अगले छह महीने में नई दिल्ली तथा श्रीनगर के नीति निर्माताओं को युवाओं, समाज के अलग-थलग पड़े वर्गों तथा आंदोलन के ‘बिखरे हुए’ नेताओं समेत जनता तक पहुंचने का मौका मिल जाए।” उसमें मैंने यह सलाह भी दी थी कि यह काम खुफिया तंत्र तथा विश्वसनीय वार्ताकारों के जरिये बेहतर तरीके से हो सकता है क्योंकि उन दोनों को ही गतिरोध तोड़ने तथा वाजपेयी जी द्वारा आरंभ किए गए इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के सिद्धांत पर आरंभ की गई वार्ता को बहाल करने के लिए सही माहौल तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। प्रधानमंत्री मोदी भी कश्मीर की जनता को भरोसा दिलाते रहे हैं कि वाजपेयी का यही सिद्धांत कश्मीर पर उनकी नीति की बुनियाद बनेगा।”
प्रधानमंत्री मोदी ने कश्मीर की जनता के साथ किया गया अपना वायदा इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण में फिर दोहराया और कहा कि जम्मू-कश्मीर की समस्याओं को न तो गोली से सुलझाया जा सकता है और न ही गाली से। उन्हें केवल कश्मीरियों को गले लगाने से सुलझाया जा सकता है (“न गोली से, न गाली से, बात बनेगी - गले लगाने से”)। सरकार ने इसी पर काम किया और केंद्रीय गृह मंत्री सितंबर, 2017 में चार दिन के लिए कश्मीर गए, जहां उन्होंने 80 से अधिक प्रतिनिधिमंडलों के प्रतिनिधियों से मुलाकात की। यात्रा के दौरान गृह मंत्री को जो जानकारी मिली और सुरक्षा तथा खुफिया सेवाओं ने जो बताया, उसी के आधार पर सरकार इस निर्णय पर पहुंची कि जून, 2016 में बुरहान वानी मुठभेड़ के बाद से साल भर जो सक्रिय उपाय किए गए और जो लक्षित अभियान चलाए गए, उनसे हिंसा को काबू में करने का वांछित लक्ष्य प्राप्त हो गया है। सरकार को यह भी लगा कि वायदे के मुताबिक हितधारकों से बात करने का सही समय आ गया है।
ध्यान रहे कि इस वर्ष अक्टूबर के मध्य तक सुरक्ष बलों ने खुफिया सूचना के आधार पर अंजाम दिए गए अभियानों में 176 आतंकवादियों का सफाया कर दिया है। इसमें लश्कर-ए-तैयबा के 12 प्रमुख कमांडर, हिज्ब-उल-मुजाहिदीन के 10 और जैश-ए-मोहम्मद के दो प्रमुख सदस्य शामिल हैं। यदि पिछले तीन वर्ष (2014-2016) में हुई लक्षित कार्रवाई में मारे गए 368 आतंकवादियों को इस आंकड़े में जोड़ दें तो पता चलता है कि घाटी में काम कर रहे आतंकवादी नेटवर्क को पिछले कुछ वर्ष में सबसे बड़ा नुकसान हुआ है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की रीढ़ तोड़ी जा चुकी है। आतंकवादियों को वित्तीय मदद देने वाला नेटवर्क भी राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा की जा रही जांच के कारण मोटे तौर पर खत्म ही हो गया है। एजेंसी जांच में आतंकी समूहों के नेताओं और जमीनी स्तर के सदस्यों तक रकम पहुंचाने वाले व्यक्तियों को निशाना बना रही है। उपलब्ध ब्योरे के मुताबिक पाकिस्तान की मदद से मिलने वाली वित्तीय सहायता के नेटवर्क में 19 बड़े नामों की जांच की जा रही है। उनमें से 10 को अपराधों और आपराधिक मामलों के सिलसिले में पहले ही हिरासत में लिया जा चुका है।
ताज्जुब है कि इस पहल का विरोध करने वाले कुछ लोग ‘प्रतिनिधि’ या वार्ताकार के रूप में श्री शर्मा के औचित्य पर यह कहकर सवाल खड़ा कर रहे हैं कि वह खुफिया पृष्ठभूमि से आते हैं, राजनीतिक नहीं। श्री शर्मा के पूर्व वरिष्ठ सहकर्मी के एम सिंह (पूर्व विशेष निदेशक, आईबी, महानिदेशक - सीआईएसएफ और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के सदस्य) का कहना है, “श्री शर्मा खांटी पेशेवर हैं, जिनको 1990 के दशक के आरंभ से ही राज्य में जमीनी स्थिति की गहरी जानकारी है क्योंकि उस समय उन्हें घाटी में नियुक्त किया गया था। पिछले वर्ष आईबी के निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त होने तक वे कश्मीर के मामलों से जुड़े रहे थे। वह बेहद विनम्र हैं, चर्चा से दूर रहते हैं और उनसे आसानी से संपर्क किया जा सकता है।” श्री शर्मा को सरकार में निर्णय करने वालों का भरोसा हासिल है और इस तरह यह चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी निभाने के लिए जरूरी वार्ताकार के सभी गुण उनके भीतर हैं। प्रतिनिधि के सामने कई प्रकार की और बड़ी चुनौतियां होंगी। पिछली सरकारों द्वारा उठाए गए कदम सफल नहीं रहे थे; यह भी पूछा जाएगा कि उनकी सिफारिशों का क्या हुआ। युवाओं का मोहभंग हो चुका है, वे नेतृत्वविहीन और दिशाहीन हैं। उन्होंने बहुत तकलीफ झेली हैं; उनका शोषण किया गया है और उनकी बहुत अधिक आकांक्षाएं तथा अपेक्षाएं हैं। आर्थिक पैकेज तो बहुत दिए गए, लेकिन क्या उन्हें पहुंचाने की प्रक्रिया दुरुस्त की गई?
आज स्थिति बदल चुकी है। कानून-व्यवस्था और सुरक्षा की स्थिति नियंत्रण में आ चुकी है, लेकिन अतीत के कुछ प्रश्न हैं, जिन्हें सुलझाना ही होगा। देश के भीतर और बाहर मौजूद जिन स्वार्थी तत्वों को घाटी में जारी अशांति से फायदा मिला है, वे चुप नहीं बैठेंगे। उनके स्वार्थों की जड़ें बहुत गहराई तक पहुंच चुकी हैं। प्रतिनिधि को विभिन्न हितधारकों से कितना सहयोग मिल पाएगा? लेकिन एक अच्छी शुरुआत कर दी गई है। इस पहल के लिए सरकार को बधाई दी जानी चाहिए। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने समर्थन करते हुए कहा है, “श्री शर्मा को सरकार ने सभी से बात करने का अधिकार दिया गया है और इसीलिए उनकी रिपोर्ट और सिफारिशों को केंद्र सरकार की मंजूरी हासिल होगी।”
इस समय सभी पक्षों को कश्मीर तथा कश्मीरी जनता के हित में अपना पूरा सहयोग देते हुए इस पहल का समर्थन करना चाहिए और जो नया अवसर सामने आ रहा है, उसे लपकने में कश्मीर की मदद करनी चाहिए।
(लेख में लेखक के निजी विचार हैं और वीआईएफ का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)

Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)

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