हाल में भारत के लॉ कमीशन से जब केन्द्रीय सरकार ने रिपोर्ट मांगी तो एक
बार फिर से ये बहस छिड़ गई कि क्या अब वक्त आ गया है जब भारत सभी नागरिकों
के लिए चाहे वो किसी भी धर्म के हों, एक जैसी, समान नागरिक संहिता लागु कर
सके ? पिछले महीने केन्द्रीय कानून और न्याय मंत्रालय ने कमीशन से कहा कि
वो प्रस्तावित कानून के सभी पक्षों पर अपनी राय दे। ये कोई ऐसा मुद्दा नहीं
जिसे जल्दबाजी में सुलझाया जा सकता हो। जैसा की अभी कानून मंत्री श्री
सदानंद गौडा के बयान से इशारा मिलता है, कमीशन को इस रिपोर्ट को देने में
“छह महीने से एक साल” तक का वक्त लग सकता है। एक बार जब रिपोर्ट आ जाती है
तो फिर सभी राजनैतिक दलों के अलावा विभिन्न साझेदारों से भी इस मामले में
चर्चा होगी। इस तरह जब मोटे तौर पर एक सहमती बनेगी, तभी समान नागरिक संहिता
की संभावना किसी निश्चितता की शक्ल लेगी। इतने समय में, सरकार को भी अपनी
दिशा बनाए रखना पड़ेगा ताकि मामले को एक सार्थक निष्कर्ष तक पहुँचाया जा
सके। मंत्रालय के नए सदस्य के लिए ये एक चुनौती भरा काम होगा।
दुर्भाग्यवश, विभिन्न कारणों से, काफी हद तक तो क्षुद्र राजनैतिक
स्वार्थों के कारण इस मुद्दे को हमेशा गैर जरूरी समझा जाता रहा है। इसलिए
आजादी के समय से ही इसे ढक कर, दबा कर रखा गया। इसे ना सुलझाने का एक
नुकसान ये भी हुआ है कि इसके कारण विभिन्न निजी स्वार्थों वाले दलों को इस
मौके का फायदा मिल गया। उन्हों इसे धर्म से जोड़ने की कोशिश की, साथ ही इसपर
भावनाएं भड़काने का प्रयास किया। एक तर्क जो अक्सर पेश किया जाता है वो ये
है कि इस से देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक अधिकार छिन
जायेंगे। इस संदेह को काफी पहले ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 को पढ़कर
सुलझा लिया जाना चाहिए था, जहाँ ये स्पष्ट उल्लेख है कि समान नागरिक संहिता
का उद्देश्य सभी समुदायों को “एक साझा मंच पर लाना है, जहाँ अभी अलग अलग
नियम हैं लेकिन वो किसी धर्म का आधार नहीं, उदाहरण के तौर पर तलाक और
तलाकशुदा पत्नी के जीवनयापन का खर्च” (भारत का संक्षिप्त संविधान: दुर्गा
दास बासु)। इस तरह हम देख सकते हैं कि वो मुद्दे जो धर्म का “मूल तत्व”
नहीं है सिर्फ वही समान नागरिक संहिता के अन्दर आयेंगे। कम शब्दों में कहा
जाए तो अनुच्छेद 44 ने पहले ही समान नागरिक संहिता को धर्म से अलग करने का
इंतजाम कर दिया है।
हमारे संविधान निर्माताओं का पूरे देश के लिए समान नागरिक संहिता का
सपना – “राज्य अपने नागरिकों के लिए पूरे भारतवर्ष में एक समान नागरिक
संहिता की स्थापना के लिए प्रयासरत रहेगा”, आज भी सपना ही रह गया क्योंकि
अनुच्छेद 44 संविधान के भाग 4 का हिस्सा है, जो कि राज्य के नीति निर्देशक
तत्वों की बात करता है। यद्यपि संविधान नीति निर्देशक तत्वों को राज्य के
सफल प्रशासन के लिए मौलिक मानता है, लेकिन साथ ही वो ये भी कहता है कि ये
किसी न्यायालय द्वारा लागू नहीं किये जा सकते बल्कि ये विधायिका के जरिये
ही लागू किये जायेंगे। इसके अलावा न्यायालय सर्कार को “बाध्य” नहीं कर सकती
कि वो इन नीतियों को लागू करने के लिए कानून बनाये ही। यही कारण है कि जब
स्वाई विधि (पर्सनल लॉ) का मुद्दा आता है तो न्यायपालिका के हाथ बंधे होते
हैं। समान नागरिक संहिता के अभाव में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन
एक्ट, 1937, अपनी जगह पे बना हुआ है। लेकिन विभिन्न मामलों में बार बार
इन्हें चुनौती भी दी जा रही है – ख़ास तौर पर उन मामलों में जहाँ
याचिकाकर्ताओं के मूल अधिकारों का ऐसे कानूनों के कारण हनन होता है।
लगातार बढ़ते इस असंतोष के कारण न्यायालयों ने इसपर एक दूसरा रुख लिया :
संविधान द्वारा सुनिश्चित अधिकारों के हनन का मसला। लगभग सभी ऐसे मामले
विवाह, बहुविवाह, तलाक, निर्वाह निधि जैसे मामलों के हैं – साथ ही मुस्लिम
महिलाएं ऐसे मामलों में अदालती हस्तक्षेप की मांग कर रही हैं। इन सभी ने
अपने साथ मजहब की आड़ में संवैधानिक अधिकारों के हनन की शिकायत की है, ये
मुस्लिम स्वाई विधि के दुरुपयोग की शिकायत कर रही हैं। ये अब लैंगिक भेदभाव
का मसला बन गया है जहाँ मुस्लिम महिलाओं की शिकायत है कि इस्लामिक कानूनों
की आड़ में उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन हो रहा है। महिला
आन्दोलनकारियों में अभी इस बात को लेकर थोड़ा मतभेद है कि उन्हें इस्लामिक
कानूनों के अन्दर अपने लिए कुछ सहूलियतें चाहिए या फिर वो ये मानती हैं कि
कट्टरपंथी मुल्लाओं के रहते, एक समान नागरिक संहिता ही उन्हें न्याय दिला
सकती है।
सर्वोच्च न्यायलय पहले ही इस बात पर राज़ी है कि वो इस बात की जांच करेगा
कि क्या शादी और विरासत के अधिकार के इस्लामिक कानून भारत की मुस्लिम
महिलाओं के मूल अधिकारों का हनन करते हैं या नहीं। पिछले सालों में ऐसे कई
मामलों से अदालतों को निपटना पड़ा है। साल 1995 में अदालत को सरला मुद्गल और
भारत राष्ट्र के बीच एक मुक़दमे का फैसला करना पड़ा। ये मामला एक हिन्दू
पुरुष के मुस्लिम बनकर दूसरी शादी करने का था (अदालत ने कहा कि हिन्दू
विवाह अधिनियम, 1955 के हिसाब से उसने पहली शादी से तलाक नहीं लिया था
इसलिए दूसरा विवाह निरस्त किया गया), इस्मने भी जज ने सरकार को संविधान के
अनुच्छेद 44 को लागू करने को कहा।
इसी वर्ष (2016) के अप्रैल में, शायरा बानो ने सर्वोच्च न्यायलय का
दरवाजा खटखटाया और तीन तलाक और बहु विवाह पर पाबन्दी लगाने की मांग
की।उन्होंने अदालत को बताया कि उनके ससुराल वालों ने पहले तो उसे और उसके
माता-पिता को कार और दहेज़ के लिए तंग करना शुरू किया। धीरे धीरे जब स्थिति
असहनीय हो गई तो वो अपने माँ-बाप के घर आई, एक दिन वहीँ उसे एक तलाकनामा ख़त
के जरिये मिला। स्थानीय मौलवी के मुताबिक कागज़ दुरुस्त तलाक था। ऐसे में
वो न्यायालय में इन्साफ की गुहार लगाने आई थी।
एक महीने बाद अफरीन रहमान ने ऐसी ही वजहों से सर्वोच्च न्यायलय का
दरवाजा खटखटाया। उन्हें भी उनके शौहर ने तलाक के कागज़ स्पीड पोस्ट से भेज
दिए थे जब वो दहेज़ की मांग से परेशान होकर अपने ससुराल से आई थी।
इन घटनाओं से हमें 1985 के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा शाहबानो मामले के
परिवर्तनकारी फैसले और उसके बाद की घटनाओं की याद हो आती है। तलाकशुदा
शाहबानो जब सर्वोच्च न्यायलय गई तो उसे निर्वाह निधि मिल गई। सर्वोच्च
न्यायलय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत मुस्लिम महिला को
तलाक के बाद गुजारा भत्ता पाने के अधिकार को मान्यता दी। इस बात से
कट्टरपंथी मुस्लिम जमात और कई मौलाना नाराज़ हो गए, उनका मानना था कि ये
उनके इस्लामिक नियमों के खिलाफ है। अगर केंद्र सर्कार ने दृढ़ता दिखाई होती
तो इस्लामिक कानूनों के जरिये महिलाओं के शोषण का मामला 30 साल पहले ही
सुलझ गया होता।
दुर्भाग्यवश उन दिनों की सरकार इस्लामिक कट्टरपन्थियों के
आगे झुक गई – उन्होंने मुस्लिम महिलाएं (तलाक के अधिकार) एक्ट, 1986 लाया,
जो कि सर्वोच्च न्यायलय के नियमों को पलट कर मुस्लिम महिलाओं को बाकी सभी
महिलाओं के अधिकारों से वंचित करता था। सरकार ने इस से अपना वोट बैंक शायद
बचा लिया हो, लेकिन उन्होंने सुधर की प्रक्रिया को जारी रखने का एक सुनहरा
मौका खो दिया। ये एक विशेष समुदाय की महिलाओं को बराबरी के अधिकार दिलाने
का अवसर खोना था।
इस घटना के करीब 17 साल बाद एक और ऐसी ही घटना में सर्वोच्च न्यायालय ने
जो फैसला दिया वो मील का पत्थर साबित हुआ। ये मुकदमा था शमिन आरा बनाम
उत्तर प्रदेश सरकार का मुकदमा। इसने गैरजिम्मेदाराना तरीके से दिए गए तलाक
को अवैध करार देते हुए जैसा कुरआन में लिखा था बिलकुल वैसे तलाक देने का
फैसला दिया। इस फैसले से होना तो ये चाहिए था कि गलत तरीकों से तलाक पर रोक
लग जाती। जो चिट्ठी या स्पीड पोस्ट (अब तो ईमेल भी) से तलाक के कागज़ भिजवा
देने की प्रथा शुरू हो गई थी, जिस से मुस्लिम महिलाओं को अदालती कारवाही
से पहले ही गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया जाता था वो बंद हो जाए।
जस्टिस कृष्णा अय्यर ने एक फैसले में (यूसुफ़ रवठेर बनाम सोवराम्मा) ये
टिप्पणी की थी की “ये ख़याल कि मुस्लिम पति अपनी पत्नी पर तलाक देने का
एकतरफा अधिकार होता है ये इस्लामिक आदेशों के अनुरूप नहीं है...”। अभी हाल
के एक फैसले, विश्व लोचन मदन बनाम भारत सरकार(2014) में सर्वोच्च न्यायलय
ने कहा कि फ़तवे उस व्यक्ति को बाध्य नहीं करते जो फतवा मांगने गया हो। इस
अदालत ने लेकिन, ऐसे कामों पर कोई रोक नहीं लगे, इस तरह इस्लामिक कानूनों
के जरिये ऐसे वहम को फैलाना बदस्तूर जारी रहा।
इन सभी पे एक नजर डालना आज इसलिए भी जरूरी है ताकि समझा जा सके कि अदालत
के विस्तृत आदेशों और स्पष्टीकरण के वाबजूद ये फैसले मुस्लिम महिलाओं के
साथ तलाक और गुजारे भत्ते के मामले निपटाने में शायद ही कुछ कर पाए हैं।
उन्हें आज भी इस्लामिक कानूनों के नाम पर भेदभाव और शोषण झेलना पड़ रहा है।
उस से भी बुरी बात ये है कि मुस्लिम उलेमा और मौलाना, जो शरिया जानते हैं
उन्हें पता होना चाहिए कि जो महिलाएं अदालत का दरवाजा खटखटाने आई हैं (और
बहुत सी जो नहीं आई हैं) उन सब को नैन्सफी झेलनी पड़ी है। मौलाना और मुफ़्ती
जब अपने आप को न्यायिक प्रक्रिया के खिलाफ खड़ा कर लेते हैं तो जो समान
नागरिक संहिता के पक्ष में हैं, उनकी दलील और मजबूत हो जाती है।
ये लड़ाई सिर्फ अदालतों में ही नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय के अन्दर भी चल
रही है। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में किसी
भी किस्म की छेड़ छाड़ के खिलाफ सलाह देते हुए कहा है, कि ये मुस्लिम समाज
को अपने व्यवहार के मामलों में शरिया लागू करने पर पाबन्दी है। दूसरी तरफ
आल इंडिया मुस्लिम वुमन पर्सनल लॉ बोर्ड, जो कि 2005 में बना था, वो तलाक
और बहुविवाह पर क़ानूनी हस्तक्षेप का पक्षधर है। उनका कहना है कि मुस्लिम
उलेमाओं ने शरिया की गलत व्याख्या कर के मुस्लिम समुदाय के ऊपर पकड़ मजबूत
करने की कोशिश की है। ऐसा प्रतीत होता है कि वो भारत की ज्यादातर मुस्लिम
महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। मुंबई से काम करने वाल भारतीय मुस्लिम
महिला आन्दोलन ने जब 2013 में एक सर्वेक्षण करवाया तो करीब 92% महिलाओं का
कहना था कि तीन तलाक जो की कथित रूप से इस्लामिक कानूनों में जायज है उसे
पूरी तरह प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
इस लड़ाई ने राजनैतिक रूप भी ले लिया है। जैसे ही सरकार ने न्यायिक आयोग
से समान नागरिक संहिता पर उनकी रिपोर्ट और राय मांगी, वरिष्ठ कांग्रेस
प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इसे “स्टंटबाजी” करार दिया। एक टिप्पणी में,
द हिन्दू नामक दैनिक से बात करते हुए उन्होंने पुछा, “क्या (भाजपा नेतृत्व
की एन.डी.ए.) सरकार ने इस मुद्दे को राजनैतिक अखाड़े में फेंकने से पहले
क्या कदम उठाये हैं ?” इसके साथ ही उन्होंने जोड़ा, “अगर सरकार ने कुछ
सकारात्मक कदम उठायें हों, तो हो सकता है इस मुद्दे को किसी निष्कर्ष तक
पहुँचाया जा सके”।
लेकिन राजनीती तो इस मामले में तभी से है जब से शाहबानो का मामला हुआ
था। अभी हाल में सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व जज ए.आर. लक्ष्मणन, जो कि
न्यायिक कमीशन के प्रमुख भी रह चुके हैं जब विवाह के निबंधन पर 211वीं और
गैर न्यायिक विवाह पर 212वीं रिपोर्ट जमा हुई, उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस
अख़बार को दिए साक्षात्कार में बताया कि उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व वाली
यु.पी.ए. सर्कार को ये अनुशंसा की थी कि सभी शादियों और तलाक के मामलों को
एक कानून के तहत लाया जाए। “हर चीज़ को सरकार ने ठन्डे बस्ते में दाल दिया।
उम्झे बहुत खेद हुआ जब एक समान नागरिक संहिता के साध्य होने की जांच के लिए
कोई प्रयास नहीं किये गए”, उन्होंने खेद जताते हुए कहा था।
इस मामले में झुंझलाने वाली बात ये भी है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के कानून
वहीँ के वहीँ हैं, जबकि हिन्दुओं के कानूनों में कई बार फेरबदल हो चूका
है। जब हिन्दू कोड बिल लाया गया तो वो भी संविधान सभा में गरमा गर्म बहस का
मुद्दा था, लेकिन जब तक वो लोक सभा के सामने आया (1952-57 सत्र में) तब तक
उसे तीन अलग अलग बिल में तोडा जा चुका था। ये अन्य चीज़ों के अलावा
बहुविवाह को प्रतिबंधित करता था और बेतिओं को विधवा और बेटों के बराबरी की
विरासत देता था। उस दौर में भी कई ऐसे ‘हिन्दुत्ववादी’ सदस्य थे जो
जवाहरलाल नेहरू की ‘धर्मनिरपेक्ष’ सरकार के इन कदमों को भारत के हिन्दू
समाज के विवाह और विरासत सम्बन्धी परंपरागत नियमों के लिए एक खतरा मानते
थे। लेकिन असंतोष का एक बड़ा कारण दोहरी नीतियां भी हैं – जहाँ एक और
इस्लामिक कानूनों को छुआ भी नहीं गया वहां हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था
में अमूल चूल परिवर्तन कर दिए गए। विख्यात राष्ट्रवादी नेता श्यामा प्रसाद
मुखर्जी ने कहा था कि “सरकार की हिम्मत नहीं पड़ी कि वो मुस्लिम समुदाय को
छु भी सके”। कहा जाता है कि नेहरु के समर्थन में उन्होंने मुस्लिम कानूनों
को जस का तस छोड़ देने का फैसला किया था ताकि अल्पसंख्यक समुदाय को भारत के
आजादी के बाद भारत में घुल मिल जाने का मौका मिल सके। नेहरु के समर्थक कहते
हैं कि वो हिन्दुओं के कानून में जितने सुधार चाहते थे उतने नहीं हुए,
क्योंकि उन्हें मुख़र्जी और राजेन्द्र प्रसाद जैसे कई नेताओं के सामने झुकना
पड़ा। उनकी दलील है कि हिन्दुओं के कानूनों के अन्दर भी विवाह और भत्ते के
मामलों में भेदभाव है, हालाँकि सुधार किये गए हैं। हो सकता है ऐसा हो,
लेकिन एक समान नागरिक संहिता के होने से वो भी हट जाएगा। चाहे इस मामले पर
जितनी भी बात की जाए, इतना तो तय है कि इस मुद्दे पर दोहरी नीतियां अपनाई
गई हैं।
(लेखक जनहित मामलों के वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)
Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 1 st August 2016, Image Source: http://www.thehindu.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)
Published Date: 1 st August 2016, Image Source: http://www.thehindu.com
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